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१ मई, १९७१
सचमुच ऐसा लगता है कि संसार खलबलीमें है ।
हां, ठीक है ।
और व्यक्ति भी ।
(मौन)
सवेरेसे ऐसा ही रहा है -- हड़तालें, झगड़े, अव्यवस्थाएं... । और कुछ ऐसा भाव है कि जिन्हेंने अव्यवस्था पैदा की है उन्हींकी सहायतने. व्यवस्था फिरसे लायी जाय । यही चीज करनी है । सामान्य सद्भावना और समस्त नैतिक और सामाजिक नियमोंकी जगह -- ये सब ढह चुके है -- तुम्हें ऊपर उठना चाहिये, भागवत इच्छा, ओर भागवत 'सामंजस्य' होने चाहिये । हम यही तो चाहते है । और फिर, जिन लोगोंने चीजों और सामान्य सामाजिक रुढियोंके सामान्य विधानके विरुद्ध विद्रोह किया है उन्हें सिद्ध करना होगा कि वे उच्चतर चेतना और सत्यतर सत्यके माप संपर्कमें है ।
यह करनेका समय है... ( ऊपरकी ओर छलांगका संकेत) ।
और व्यवस्था करनेवाली शक्तिकी दृष्टिसे, यह एक शक्ति है... अत्यधिक शक्तिशाली । यह अद्भुत है । और अगर यह शक्ति उच्चतर व्यवस्था, सत्यतर चेतनाकी सेवामें रखी जा सकें... तो कुछ किया जा सकता है ।
व्यक्तिको ऊपर... ऊपरकी ओर छलांग मारनी होगी ।
वे सब लोग जो नयी व्यवस्था लाना चाहते है वे पीछेकी ओर, पुराने विचारोंकी ओर खिंचते हैं -- और इसीलिये कभी सफल नाहीं होते । यह सब खतम हो चुका है, हमेशाके लिये खतम हो चुका है । हम ऊपरकी ओर जायंगे । केवल वही काम कर सकते हैं जो उतरकी ओर, उठे ।
( लंबा मौन)
तुम्हारे पास कुछ नहीं है? कुछ नहीं पूछना?
मुझे ठीक पता नहीं कि मै किस दिशामें जा रहा हू ।
देशा बस एक ही है -- भगवान्की ओर । और जैसा कि तुम जानते हो वह उतनी ही अंदर है जितनी बाहर, उतनी ही ऊपर है जितनी नीचे । वह सब जगह है । इस जगत् में, जैसा कि वह है, भगवानको पाना और उनके साथ चिपके रहना चाहिये -- केवल उन्हींके साथ, कोई और रास्ता नहीं है ।
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